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कोई उम्मीद बर नहीं आती

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मित्रों,भगत चा यानि शिव प्रसाद भक्त उसी आरपीएस कॉलेज,चकेयाज,महनार रोड,वैशाली में दफ्तरी हैं जहाँ से मेरे पिताजी साल २००३ में प्रधानाचार्य बनकर रिटायर हो चुके हैं.उनसे मेरा परिचय तब हुआ जब १९९२ में हमारा परिवार जगन्नाथपुर छोड़कर महनार आ गया.यह उनके व्यक्तित्व का ही जादू था कि वे बहुत जल्द हमारे परिवार का हिस्सा बन गए.मेरी छोटी दीदी की शादी में लगभग सारा इंतजाम उन्होंने ही किया था.
मित्रों,भगत चा १९८० से कॉलेज में हैं लेकिन उनको वेतन नहीं मिलता है. इन ३७ सालों में उन्होंने अनगिनत कष्ट झेले हैं लेकिन क्या मजाल की एक दिन के लिए भी कॉलेज से गैरहाजिर हुए हों. मैंने उनको उदास तो कई बार देखा लेकिन हताश कभी नहीं. जेब और पेट भले ही खाली हों चेहरे की मुस्कान हरदम बनी रही.पत्नी और बच्चों को भी हरपर अपनी जरूरतों में कटौती करनी पड़ी लेकिन उन्होंने भी हमेशा उनका साथ दिया.आरपीएस में ऐसे लगभग डेढ़ दर्जन लोग थे जिनको वेतन नहीं मिलता था.पिछली पंक्ति में हैं की जगह थे का प्रयोग मैंने इसलिए किया है क्योंकि उनमें से २ अभाव और भूख से लड़ते हुए शहीद हो चुके हैं.एक बार नहीं दो-दो बार पटना उच्च न्यायालय ने उनको वेतन और बकाया देने का आदेश दिया.मौत आ गयी लेकिन वेतन नहीं आया.वेतन का इंतजार जिन्दगी को होती है जनाब मौत को नहीं.
मित्रों,अभी पिछले साल बीआरए बिहार विवि के रजिस्ट्रार की तरफ से कॉलेज के प्रधानाचार्य के पास पत्र आया कि इन लोगों को वेतन भुगतान शुरू किया जाए लेकिन बड़ी ही चालाकी से यह नहीं बताया गया कि किस मद से.लिहाजा फिर से गेंद को विवि के पाले में डाल दिया गया. अब रजिस्ट्रार साहब को ४ लाख रूपये चाहिए तभी वे फिर से कॉलेज में पत्र भेजेंगे मद को स्पष्ट हुए.मगर यह पैसा देगा कौन और कहाँ से? ४० साल की अवैतनिक गृहस्थी के बाद किसी के पास कुछ बचा ही कहाँ होता है साहेब बहादुर को नजराना देने के लिए.बूढ़े और जर्जर हो चुके जिस्मों में खून तक तो शेष नहीं वर्ना वही पिला दिया जाता.
मित्रों,तो मैं बात कर रहा था भगत चाचा यानि भगत चा की.भगत चा इन दिनों मृत्यु शैया पर हैं शर शैया पर तो १९८० से ही थे.उनको लीवर का कैंसर है जो अंतिम स्टेज में है.कुछ भी नहीं पच रहा.नसों में खून नहीं बचा जिसके चलते स्लाईन चढ़ाना भी मुमकिन नहीं.डॉक्टरों ने ३ महीने की समय-सीमा तय कर दी है.पहले से ही कर्ज में चल रही गृहस्थी अब और भी ज्यादा कर्ज में है.घर में सिवाय चंद बर्तनों और कपड़ों के पहले भी कुछ नहीं था और आज भी नहीं है. कभी जिस भगत चा को उनके शिक्षक सितारे हिन्द कहकर बुलाते थे वही भगत चा आज डूबता हुआ तारा हैं.६० साल की जिंदगी में ४० साल का भीषण संघर्ष अब समाप्ति की ओर है.भगवान का एक अनन्य भक्त अब भगवान से निराश होकर भगवान के पास जा रहा है.देखना यह है कि मौत पहले आती है या वेतन पहले आता है.देखना है कि विश्वास जीतता है या हारता है?देखना यह है कि क्या भगत चा भी बिना वेतन पाए ही ३ महीने में जिंदगी से रिटायर हो जाने वाले हैं वैसे नौकरी अब भी ६ महीने की बची है.देखना यह भी है कि चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी समारोह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेनेवाले ऊपर से नीचे तक आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे विवि प्रशासन का जमीर जागता है या नहीं. वैसे सच पूछिए तो मुझे तो इस चमत्कार की कोई उम्मीद नजर नहीं आती. बतौर ग़ालिब-

कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती

मौत का एक दिन मु’अय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती

जानता हूँ सवाब-ए-ता’अत-ओ-ज़हद
पर तबीयत इधर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती

क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती

दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता
बू-ए-चारागर नहीं आती

हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती

मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती

काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’
शर्म तुमको मगर नहीं आती


न्यायपालिका में कितने कर्णन?

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मित्रों,न्याय करना बच्चों का खेल नहीं है. इसके लिए अतिसूक्ष्म बुद्धि की आवश्यकता होती है. प्राचीन काल में कई बार राजा चुपके से वेश बदलकर घटनास्थल पर जाकर सच्चाई का पता लगाते थे. एक प्रसंग प्रस्तुत है. एक बार अकबर के पास एक मुकदमा आया जिसमें एक व्यक्ति दूसरे पर कर्ज लेकर न लौटाने के आरोप लगा रहा था. सारे गवाह कथित कर्जदार के पक्ष में थे लेकिन कर्जदाता की बातों से सच्चाई जैसे छलक-छलक रही थी. अब फैसला हो कैसे? तभी बीरबल ने दोनों को सुनसान सड़क पर एक लाश के पास बैठा दिया और आधे घंटे बाद लाश उठाकर लाने को कहा. दोनों बेफिक्र होकर लाश के पास बैठकर बातें करने लगे. कर्जदार ने कहा मैंने कहा था न कि मैं तुमको ही झूठा साबित कर दूंगा. क्या जरुरत थी तुमको बेवजह अपनी मिट्टी पलीद करवाने की? तुम्हारे पैसे तो मैंने लौटाए नहीं ऊपर से तुम्हारी ईज्ज़त को भी तार-तार कर दिया. दूसरा बेचारा चुपचाप सुनता रहा. आधे घंटे बाद जब वे दोनों लाश लेकर दरबार में पहुंचे तो फिर से सुनवाई शुरू हुई. फिर से बेईमान का पलड़ा भारी था कि तभी लाश बना गुप्तचर उठ बैठा और सच्चाई सामने आ गयी.
मित्रों,अब बताईए कि हमारी वर्तमान न्यायपालिका किस तरह काम करती है? क्या वो गवाहों के बयानात,जांच अधिकारी की रिपोर्ट, कानून की विदेशी किताबों में दर्ज लफ्जों और वकीलों की दलीलों के आधार पर अपने फैसले नहीं सुनाती है? अगर उसके समक्ष उपर्लिखित मामला या उसके जैसा कोई मामला जाता तो वो क्या करती? न्याय या अन्याय? हमारी आज की जो न्याय-व्यवस्था है उसमें निश्चित रूप से अन्याय होता और होता भी होगा.
मित्रों,हमारे देश में विलंबित मुकदमों की भारी संख्या होने के पीछे एक कारण यह भी है कि कई दशकों की देरी के बाद जब फैसला आता है तो पीड़ित पक्ष को न्याय नहीं मिलता. कौन देगा न्याय की गारंटी? किसकी जिम्मेदारी है यह? मैं मानता हूँ कि निश्चित रूप से यह उच्च न्यायपालिका, सरकार यानि कार्यपालिका और व्यवस्थापिका की संयुक्त जिम्मेदारी है.
मित्रों,लेकिन हमारे उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान न्यायाधीश क्या कहते हैं? कदाचित उनका तो यह मानना है कि वे निरंकुश हैं. संविधान क्या कहता है इससे उनको फर्क नहीं पड़ता वे जो कहते हैं वही संविधान है और कानून भी. जब जैसा चाहा वैसी व्यवस्था दे दी और कई बार तो वे खुद ही अपने लिए नई व्यवस्था बना लेते हैं जबकि ऐसा करने से व्यवस्थापिका के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण होता है. जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने संसद और 20 विधानसभाओं से एक सुर में पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) कानून को असंवैधानिक करार देकर रद्द कर दिया उसके बाद तो यह सवाल उठने लगा है कि संसद और विधान-सभाओं की आवश्यकता ही क्या है? क्या जजों की नियुक्ति की कोलेजियम व्यवस्था आसमानी है जिसमें लाख कमियों के बावजूद कोई बदलाव नहीं हो सकता? अगर इसी तरह अतिनिराशाजनक स्थिति को बदलने के लिए उच्चतर न्यायपालिका कुछ करेगी नहीं और कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को करने भी नहीं देगी तो यथास्थिति बदलेगी कैसे? क्या इसी तरह कर्णन जैसे विचित्र स्थिति पैदा करनेवाले विचित्र लोग जज बनते रहेंगे? जब जज ऐसे होंगे तो फैसले कैसे सही हो सकते हैं? कितने महान निर्णय हमारी उच्च न्यायपालिका देती है उदाहरण तो देखिए. कोई मुसलमान १५ साल की उम्र में शादी तो कर सकता है लेकिन बलात्कारी या हत्यारा नहीं हो सकता. बलात्कारी या हत्यारा होने के लिए उसको १७ साल,११ महीने और ३० दिन का होना होगा. सोंचिए अगर निर्भया के सारे बलात्कारी हत्यारे नाबालिग होते तो? तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या होता? तब सुप्रीम कोर्ट कहता कि हत्या हुई ही नहीं,बलात्कार भी नहीं हुआ वो तो बच्चों से गलती हो गई? इसी तरह से बतौर न्यायपालिका जलिकट्टू क्रूरता है क्योंकि इसमें जानवर घायल हो जाते हैं लेकिन सरकार को वधशालाओं को बंद नहीं करना चाहिए क्योंकि पशुओं का मांस खाना लोगों का जन्मसिद्ध अधिकार है. क्या फैसला है? हत्या अपराध नहीं लेकिन घायल करना अपराध है. इसी तरह से हमारी न्यायपालिका मानती है कि कुरान में जो कुछ भी लिखा गया है सब सही है लेकिन यही बात वेद-पुराणों के लिए लागू नहीं हो सकती.
मित्रों,कितने उदाहरण दूं भारत की महान न्यायपालिका के महान फैसलों के? पूरी धरती को पुस्तिका बना लूं फिर भी स्थान की कमी रह जाएगी. जब तक कर्णन जैसे कर्णधार जज बनते रहेंगे उदाहरणों की कमी नहीं रहेगी. वो कहते हैं न कि बर्बादे गुलिस्तान के लिए बस एक ही उल्लू काफी है,हर डाल पे उल्लू बैठा है अंजामे गुलिस्तान क्या होगा.. आप कहेंगे कि न्यायाधीशों के लिए ऐसा कहना उचित नहीं होगा. मगर क्यों? क्या गाली सुनना सिर्फ नेताओं का जन्मसिद्ध अधिकार है? मुलायम बोले तो गलत और जज बोले तो सही? क्या जज आदमी नहीं होते, जन्म नहीं लेते? सीधे धरती पर स्वर्ग से आ टपकते हैं?

प्रणव राय पर छापा अभिव्यक्ति पर हमला कैसे?

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मित्रों,कहते हैं कि पत्रकारिता लोकतंत्र का वाच डॉग होती है. देश के बहुत सारे पत्रकार इस कहावत पर खरे भी उतरते हैं इसमें संदेह नहीं. लेकिन कुछ पत्रकार ऐसे भी हैं जो मूलतः पत्रकार हैं नहीं. वे पहरा देनेवाले कुत्ते नहीं हैं बल्कि अपने निर्धारित कर्तव्यों के विपरीत चोरों के मदद करनेवाले कुत्ते बन गए हैं. ये रुपयों की बोटी पर पूँछ तो हिलाते ही हैं बोटी की दलाली में भी संलिप्त हैं. अब जाकर ऐसे ही एक पत्रकार के खिलाफ वैसी कानूनी कार्रवाई की गयी है जिसकी प्रतीक्षा हमें २०१० से ही थी जब नीरा रादिया प्रकरण सामने आया था.
मित्रों, जो लोग दूसरी तरह के डॉग हैं वे एकजुट होकर भारत में लोकतंत्र और अभिव्यिक्ति की आजादी के खतरे में होने का रूदाली-गायन करने में लग गए हैं लेकिन सवाल उठता है कि पत्रकार होने से क्या किसी को दलाली-धोखाधड़ी करने,देशद्रोहियों का समर्थन करने की असीमित स्वतंत्रता मिल जाती है? भारत के संविधान में तो ऐसा कुछ भी नहीं लिखा गया है.
मित्रों,सवाल यह भी उठता है कि कार्रवाई किसके खिलाफ की गयी है? क्या एनडीटीवी को या उसके किसी कार्यक्रम को बैन किया गया है? नहीं तो फिर यह कैसे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला हो गया? प्रणव राय ने धोखाधड़ी की,बैंक को नुकसान हुआ और उसने इसकी शिकायत सीबीआई से की. सीबीआई ने तो वही किया जो उसे करना चाहिए था. फिर चाहे आरोपी प्रणव राय हो या कोई और. ऐसा कैसे हो सकता है कि आम आदमी करे तो उसे जेल में डाल तो और ब्रजेश पांडे की तरह रसूख वाला करे तो आखें बंद कर लो? कोई जरूरी तो नहीं कि जैसा बिहार पुलिस करती है वैसा ही सीबीआई करे.
मित्रों,जो लोग आज सीबीआई पर सवालिया निशान लगा रहे हैं वे भूल गए हैं कि इसी सीबीआई की विशेष अदालत ने कुछ दिन पहले ही बाबरी-विध्वंस मामले में भाजपा के भीष्म पितामह सहित बड़े-बड़े नेताओं को दोषी घोषित किया है. अगर सीबीआई दबाव में होती तो क्या ऐसा कभी हो सकता था? हद है यार जब सीबीआई भाजपाईयों पर कार्रवाई करे तो ठीक जब आप पर करे तो लोकतंत्र पर खतरा? बंद करो यह दोगलापन और हमसे सीखो कि तमाम अभावों के बीच अपना अनाज खाकर पत्रकारिता कैसे की जाती है? हम इस समय वैशाली महिला थाना के पीछे घर बना रहे हैं और वो भी अपनी पैतृक संपत्ति बेचकर. हमने अपनी जमीन बेचना मंजूर किया लेकिन अपना जमीर नहीं बेचा. कबीर कबीर का रट्टा लगाना आसान है लेकिन कबीर बनना नहीं इसके लिए अपने ही घर को फूंक देना पड़ता है.

उपनिवेश

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उपनिवेश
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मेरा बचपन ‘टोला’ में कटा. आजकल ‘पुरा’ में रह रहा हूँ. मैं जब जीआईसी में पढ़ता था तो मित्रों से ‘कहाँ रहते हो’ मुद्दे पर बातें होती थीं. मित्र बताते…शांति कालोनी,विजय कालोनी…फ्रेण्ड्स कालोनी आदि.
टोला,पुरा की तुलना में ‘कालोनी’ मुझे आकर्षित करती थी. मुझे लगता था टोला पुरातन पंथी है और कालोनी में रहना ज़्यादा सम्मानजनक और प्रगतिशीलता की निशानी है.
फिर एक दिन मेरी मुलाक़ात ‘उपनिवेश’ शब्द से हुयी. उपनिवेश,उपनिवेशदेश,उपनिवेशवाद से होता हुआ जब मैं वही पुरानी आभिजात्य स्मृति में बसी ‘कालोनी’ पहुंचा तो मेरा मन पूरी तरह से इस शब्द के प्रति नफ़रत से भर चुका था.
बहरहाल आज भी मेरे परिचित कालोनी में रहते हैं. और उपनिवेशी कालोनी शब्द से हमारे संबंधों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. गुलामी,अत्याचार से जुड़े शब्द और संज्ञाएँ हमें अतीत से जोड़कर हमारे घाव ज़रूर हरा करती हैं लेकिन ज्ञान और विवेक का विकास हमारी संवेदना को ज़्यादा मुक्त आकाश देकर हमारे पूर्वाग्रह को शिथिल बनाकर ज़्यादा लोकतंत्री बनाता है. और हम जल्द ही इस धारणा से मुक्ति पा लेते हैं कि उपनिवेश का मतलब “वह जीता हुआ देश जिसमें विजेता राष्ट्र के लोग आकर बस गए हों अर्थात कालोनी !
आज ही तो पढ़ा…
यू एन में भारत के स्थायी प्रतिनिधि सैयद अकबरूद्दीन ने कहा कि उपनिवेशवाद से मुक्ति पाने के क्रम में “चागोस आर्किपेलागो” द्वीप पर संप्रभुता बहाल करने के मॉरीशस के प्रयास में हम अपना सहयोग कर रहे हैं.
इतिहास बताता है कि ब्रिटेन ने 1965 में ही इस द्वीप को मॉरीशस से अलग कर अपने पास रख लिया था. जबकि मॉरीशस को 1968 में आज़ादी मिली.
भारत ख़ुद ब्रिटिश उपनिवेशवाद का शिकार रहा है. जानता है कि कोई देश उपनिवेशकाल के दौरान क्या खोता है ? अतः उसने संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव पर ब्रिटेन के ख़िलाफ़ मतदान किया है जिसमें ब्रिटेन एवं मॉरीशस के बीच हिन्द महासागर के उपरोक्त द्वीप को लेकर चल रहे दशकों पुराने विवाद पर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की राय की मांग की गई है.
मुझे व्यक्तिगत रूप से उपनिवेशवाद से जुड़े मुद्दे आज भी न जाने क्यों गहरे प्रभावित करते हैं. अंग्रेज़ों के अत्याचार और कथित रूप से उनकी फूट डालो राज करो नीति के सुने-पढ़े किस्से मुझे मानवता पर कलंक की तरह लगते हैं.
मुझे मालुम है कई देशों ने उपनिवेशकाल के दौरान ख़ूब तरक्की की. ज़्यादा प्रशासनिक दक्षता का उन्हें लाभ मिला. तक़नीक का भी मानवीय दृष्टि से अधिक लाभ मिला. लेकिन इसी दौरान कूटनीति के तहत उन पर सांस्कृतिक,आर्थिक…संप्रभुता संबंधी ‘बलात्कार’ भी हुए. ऐसे में तुलनात्मक रूप से उन उपनिवेशी राष्ट्रों को नुक़सान ही हुआ. उनकी विरासत को छीनकर उन्हें ‘अपने रंग’ में रंगा गया.
यही सब आज भी जब पढ़ता हूँ तो लगता है ज्ञान के इस महा विस्फ़ोट काल में भी आज भी
लोग / राष्ट्र मध्ययुगीन बर्बरताओं में जी रहे हैं.
आख़िर ब्रिटेन उपरोक्त द्वीप को मॉरीशस को सौंपकर उसकी संप्रभुता की क़द्र क्यों नहीं
करता ?
मुझे लगता है यह शब्द उपनिवेश आज भी पूरी त्वरा के साथ विद्यमान है.तो क्या उपनिवेशी मानसिकता मानव के DNA में है ? शक्ति,साधन,छल,तक़नीक,
हथियार,प्रलोभन,सेक्स आदि के दम पर आज भी उपनिवेश बनाए जा रहे हैं. कहीं आर्थिक तो कहीं वैचारिक. तो कहीं बाक़ायदे अपनी फ़ौज भेजकर.
नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ की ही तरह ले लें मैं अक्सर सोचता हूँ क्या अपने जीवन में मैं कोई ऐसी आवाज़ सुन पाऊंगा जो सम्पूर्ण मानव जगत की आवाज़
हो ? या फिर क्या कोई ऐसा सिद्धांत ही प्रतिपादित होगा जिसमें सबके भले से भला हो ?
ख़ैर ख़्याली पुलाव पकाना हमारा मक़सद नहीं. मुझे एक भारतीय होने के नाते अच्छा लगा कि उपरोक्त मुद्दे पर हमारा राष्ट्र 15 के मुक़ाबले उन 94 मतों में से एक था जो मॉरीशस के पक्ष में पड़े थे.
चलते-चलते एक बात और जोड़ना चाहूंगा, क्या मानव सभ्यता कोई ऐसा रास्ता निकालेगी जिसमें किसी पिछड़ी सभ्यता को उपनिवेश बनाने की ख़ातिर नहीं
‘साथ लेने’ की ख़ातिर रोशनी प्रदान की जाए !
आमीन !!

शराबबंदी से किसको फायदा?

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मित्रों, मैं वर्षों से अपने आलेखों में कहता आ रहा हूँ कि बिहार एक प्रदेश या जमीन का टुकड़ा ही नहीं, बल्कि एक मानसिकता भी है. नहीं तो क्या कारण है कि जो योजनाएं बाकी भारत में अतिसफल रहती हैं, बिहार में अतिविफल हो जाती हैं. भ्रष्टाचार तो जैसे हम बिहारियों के खून में, डीएनए में समाहित है. लहर गिनकर पैसे कमाने वाले तो आपको देश के दूसरे हिस्सों में भी मिल जाएँगे, लेकिन सूखे की स्थिति में भी लहरों का मजा देकर पैसा कमाना सिर्फ हम बिहारियों को आता है.


liquour


मित्रों, शराबबंदी से पहले बिहार की क्या हालत थी? छोटे-छोटे गाँवों के हर गली-मोहल्ले में नीतीश सरकार ने शराब की दुकान खोल दी थी. जिधर नजर जाती थी, उधर युवाओं के कदम लड़खड़ाते हुए नजर आते थे. मानों पूरा बिहार नशे में था और मदहोश कदमों से बर्बादी की ओर बढ़ रहा था.


मित्रों, ऐसे में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने गलतियों से सबक लिया और राज्य में पूर्ण शराबबंदी लागू कर दी. हमने तब भी कहा था कि बिहार पुलिस भारत ही नहीं दुनिया का सबसे भ्रष्ट संगठन है, ऐसे में इस आन्दोलन का सफल होना नामुमकिन है. सरकार इसे विफल नहीं होने देगी और बिहार पुलिस इसे सफल नहीं होने देगी.


मित्रों, आज शराबबंदी लागू होने के डेढ़ साल बाद क्या स्थिति है? पैसे वाले पियक्कड़ों को तस्करों ने होम डिलीवरी की सुविधा दे दी है. एक फोन पर उनके घर शराब पहुंचा दी जाती है. दाम जरूर दोगुना देना पड़ रहा है. यद्यपि तस्कर भी जब पकड़े जाते हैं, तो उनकी सालभर की कमाई जमानत लेने में ही उड़ जाती है. मगर ये छोटे तस्कर हैं, बड़े तस्कर जो राजनीति में भी दखल रखते हैं, उन पर कोई हाथ नहीं डालता. हमारे वैशाली जिले के ही एक एमएलसी पहले भी शराब माफिया थे और आज भी हैं. रोज ट्रक से माल मंगाते हैं, लेकिन किसी की क्या मजाल कि उन पर हाथ डाल दे.


मित्रों, छोटे पियक्कड़ जो पहले मुंहफोड़वा से दिल लगाए थे, अब ताड़ी से काम चला रहे हैं. ऐसे में ताड़ी बेचनेवालों की पौ-बारह है और उन्होंने ताड़ी के दाम कई गुना बढ़ा दिए हैं. इतना ही नहीं राज्य में गांजा और ड्रग्स की तस्करी में भी भारी इजाफा हुआ है. बिहार में शराबबंदी से सबसे ज्यादा किसी को लाभ हो रहा है, तो वो है यहाँ की पुलिस. माल पकड़ा जाता है एक ट्रक, तो बताया जाता है एक ठेला. बाकी पुलिसवाले खुद ही बेच देते हैं. जब्त दर्ज माल के भी बहुत बड़े हिस्से के साथ ऐसा ही किया जाता है और रिपोर्ट बना दी जाती है कि चूहे शराब पी गए.


मित्रों, ऐसे में बिहार सरकार को विचार करना होगा कि शराबबंदी से किसको क्या मिला? राज्य से खजाने को भारी नुकसान होने के बावजूद मैं मानता हूँ कि सरकार का कदम सही है, लेकिन दुनिया की सबसे भ्रष्ट संस्था बिहार पुलिस पर वो कैसे लगाम लगाएगी, विचार करने की जरुरत है. क्योंकि बिल्ली कभी दूध की रखवाली नहीं कर सकती? बड़े शराब माफियाओं पर भी हाथ डालना इस मुहिम की सफलता के लिए जरूरी हो गया है. साथ ही अगर गांजा और ड्रग्स की आमद को भी रोका नहीं गया, तो बिहार की ‘पूत मांगने गई थी और पति गवां के आई’ वाली स्थिति होने वाली है.

गोरखपुर में बच्चों की मौत

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उत्तर प्रदेश के गोरखपुर सरकारी अस्पताल में पांच दिनों के भीतर हुई 60 से अधिक बच्चों की दर्दनाक मौत हादसा नहीं हत्या है – यह बातें नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने ट्वीट कर कहा है. कैलाश सत्यार्थी ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया ट्विटर पर दी है. उन्होंने कहा है कि बिना ऑक्सीजन के 30 बच्चों की मौत हादसा नहीं, हत्या है. क्या हमारे बच्चों के लिए आजादी के 70 सालों का यही मतलब है. कैलाश ने एक और ट्वीट में उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ से अपील करते हुए लिखा है कि आपका एक निर्णायक हस्तक्षेप दशकों से चली रही भ्रष्ट स्वास्थ्य व्यवस्था को ठीक कर सकती है ताकि ऐसी घटनाओं को आगे रोका जा सके.
गोरखपुर पिछले 20 सालों से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का चुनाव क्षेत्र है. मुख्यमंत्री ने इस मामले में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में ऑक्सीजन की कमी से बच्चों की मौत की खबरों से इनकार कर दिया. जबकि अस्पताल प्रशासन के साथ साथ अस्पताल के बाल रोग विभाग को इसकी सूचना चिट्ठी के जरिए दी गई थी. इस चिट्ठी में कहा गया था कि अस्पताल में ऑक्सीजन सिलिंडर की कमी है. जान गंवाने वाले बच्चों में 5 नवजात शिशु भी थे. इन मौतों की वजह आधिकारिक तौर पर भले ही नहीं बताई जा रही हो लेकिन कहा जा रहा है कि इसके पीछे ऑक्सीजन की कमी ही कारण है. जबकि, यु पी सरकार का कहना है कि ऑक्सीजन की कमी से मौत नहीं हुई. अब आइये जानते है उन दो चिट्ठियों के बारे में –
पहली चिट्ठी एक अगस्त की है जो अस्पताल में ऑक्सीजन सिलिंडर सप्लाई करने वाली कंपनी ने लिखी थी जिसमें लिखा गया है कि वे सिलिंडर की सप्लाई नहीं कर पाएंगे क्योंकि 63 लाख रुपये से ज़्यादा का बकाया हो गया है. ये चिट्ठी बी आर मेडिकल कॉलेज के प्रिंसिपल के साथ साथ गोरखपुर डी एम और उत्तर प्रदेश के चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवा विभाग महानिदेशक को भेजी गई है.
दूसरी चिट्ठी 10 अगस्त की है जो ऑक्सीजन सिलिंडर सप्लाई करने वाली कंपनी के कर्मचारियों ने लिखी थी. ये कर्मचारी अस्पताल में सिलिंडर देने का काम करते थे. ये चिट्ठी अस्पताल के बाल रोग विभाग के प्रमुख को संबोधित करते हुए एक चिट्ठी लिखी गई थी जिसमें ऑक्सीजन सिलिंडर सप्लाई कम होने की जानकारी दी गई है.
इस बीच उसी हॉस्पिटल में कार्यरत डॉ. कफील अहमद का नाम सुर्ख़ियों में आया है जिन्होंने अपने बल बूते काफी ऑक्सीजन सिलिंडर उपलब्ध कराये और उसके लिए अपने पास से नगद रुपये भी दिए. फिर भी उन्हें अफ़सोस है कि वे मासूमों की जान नहीं बचा सके.
शनिवार को जायजा लेने पहुंचे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि यह सीधे सीधे लापरवाही का मामला है और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को इस्तीफा दे देना चाहिए. मौके पर पहुंचे इस डेलीगेशन में आजाद के अलावा, आरपीएन सिंह, राज बब्बअर और प्रमोद तिवारी मौजूद थे. कांग्रेस के अलावा अन्य विपक्षी दलों ने भी अपनी-अपनी प्रतिक्रिया दी है… और ये प्रतिक्रियाएं भी राजनीतिक होती हैं इसमें कोई दो राय नहीं है.
गोरखपुर बी आर डी मेडिकल कॉलेज में बच्चों की मौत की वजह ऑक्सीजन सिलिंडर ख़त्म होने की बात सामने आई है. मेडिकल कॉलेज के सेंट्रल ऑक्सीजन सप्लाई यूनिट में ज़िलाधिकारी के आदेश पर नई संस्था मोदी फ़ार्मा ने सप्लाई शुरू की है जबकि पहले पुष्पा सेल्स नाम की कंपनी सप्लाई करती थी जिसका 63 लाख रुपये से ज़्यादा बकाया है. इसके बाद उसने सप्लाई बंद कर दी.
उत्तर प्रदेश सरकार का कहना है कि सभी मौतें ऑक्सीजन सप्लाई रुकने से नहीं हुई हैं. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कहना है कि राज्य के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में गठित समिति प्रकरण की जांच करेगी और किसी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा. योगी ने कहा कि तथ्य को मीडिया सही तरीके से पेश करे. सीएम योगी ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में हादसे से ज्यादा अपने कार्यों पर जोर दिया. उन्होंने अस्पताल के दौरे के अलावा पूरे प्रदेश के स्वास्थ्य इंतजाम पर सफाई दी.
इस बीच गोरखपुर के बाबा राघव दास मेडिकल कालेज के प्रिंसिपल डॉक्टर राजीव मिश्र ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया. उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने प्रिंसिपल के इस्तीफे की खबर की पुष्टि करते हुए कहा कि उन्होंने इस्तीफा दे दिया है लेकिन हम उन्हें पहले ही निलंबित कर चुके हैं और उनके खिलाफ जांच भी शुरू की गयी है. हालाँकि इन्ही स्वास्थ्य मंत्री का बेतुका बयान भी सुर्ख़ियों में था कि अगस्त में बच्चे मरते ही हैं. इसमें कितनी संवेदनहीनता है साफ़ साफ़ नजर आ रहा है. यही हादसा दिल्ली या किसी गैर भाजपा सरकार के शासन वाले राज्य में होता तो तुरन्त ही मुख्य मंत्री का इस्तीफ़ा मांग लिया जाता और भाजपा के ही कार्यकर्ता उस सरकार की ईंट से ईंट बजा देते.
इलाहाबाद में एक सभा में भी योगी आदित्यनाथ ने कहा था कि उनके गृह नगर में बच्चों की मौत गंदगी भरे वातावरण और खुले में शौच के चलते हुई है. आदित्यनाथ ने कहा, “मच्छरों से फैलने वाली कई बीमारियां हैं, जिसमें इनसेफलाइटिस भी शामिल है.
मीडिया रिपोर्ट्स में कहा जा रहा है कि इस अस्पताल में बच्चों की मौत का सिलसिला 7 अगस्त को ही शुरू हो गया था. 9 तारीख की आधी रात से लेकर 10 तारीख की आधी रात को 23 मौतें हुईं जिनमें से 14 मौतें नियो नेटल वॉर्ड यानी नवजात शिशुओं को रखने के वॉर्ड में हुई जिसमें प्रीमैच्योर बेबीज़ रखे जाते हैं. शनिवार को अस्प ताल में ऑक्सीेजन सिलिंडर सप्लाुई करने वाली कंपनी पुष्पाज सेल्सन के मालिक मनीष भंडारी के घर पर छापा मारा गया था. मुख्यमंत्री खुद मौके पर नहीं पहुंचे इसका लोगों में अच्छा खासा रोष है. जबकि दो दिन पहले वे उसी अस्पताल में निरीक्षण और मीटिंग करने गए थे.
सवाल यही है कि इस हादसे का जिम्मेवार कौन है? एक प्रिंसिपल को तो सूली पर चढ़ा दिया गया. उनके बारे में यह भी खबर छपी है कि वे ऑक्सीजन सप्लायर से कमीसन लेते थे. कमीसन नहीं मिलने की वजह से ही सप्लायर का पैसा रोका गया.
बच्चों की मौत के बाद अब मेडिकल कॉलेज के कर्मचारी बता रहे हैं कि मैडम (मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य राजीव मिश्र की पत्नी) सामान्य रवायत से दो फीसद ज्यादा कमीशन चाहती थीं, इसीलिए उन्होंने ऑक्सीजन सप्लाई करने वाली कंपनी का भुगतान लटका रखा था. चिकित्सा शिक्षा विभाग के कर्मचारी बताते हैं कि कंपनी अपना बकाया मांग रही थी जबकि मैडम ज्यादा कमीशन का तगादा कर रही थीं. कर्मचारियों के मुताबिक प्रदेश के मेडिकल कॉलेज और सरकारी अस्पतालों में ऑक्सीजन की आपूर्ति पर 10 फीसद का कमीशन तय है. आपूर्ति करने वाली कंपनियां और आपूर्ति मंजूर करने वाले अधिकारियों के बीच बिना मांगे ईमानदारी से यह लेन-देन चलता रहता है. यह भ्रष्टचार मुक्त भारत का सच.
अस्पतालों में ऑक्सीजन की आपूर्ति करने वाले अंकुर बताते हैं कि टैंकर के जरिये सप्लाई की जाने वाली लिक्विड ऑक्सीजन औसतन चार से साढ़े चार रुपये प्रति लीटर की दर पर मिलती है, जबकि 30 लीटर ऑक्सीजन का सिलेंडर 250 रुपये यानी करीब आठ रुपये प्रति लीटर की दर से मिलता है. सिलेंडर का दाम दोगुना होने के कारण 10 फीसद की दर से कमीशन भी दोगुना हो जाता है. मेडिकल कॉलेज के कर्मचारी बताते हैं कि इसीलिए ऑक्सीजन वाले सिलेंडरों की खपत सामान्य जरूरत से ज्यादा कराई जाती है.
दो पत्र ऐसे हैं जो बीआरडी अस्पताल प्रशासन के दावों की पोल खोलने को पर्याप्त हैं. कंपनी ने बकाया भुगतान का हवाला देकर आक्सीजन देने से मना कर दिया था. यदि कहा जाए कि इन मौतों के लिए अधिकारियों की लापरवाही पूरी तरह जिम्मेदार है तो यह गलत नहीं होगा. मेडिकल कालेज के नेहरू अस्पताल में पुष्पा सेल्स कंपनी द्वारा लिक्विड आक्सीजन की सप्लाई की जाती है.
चाहे जो भी कारण हो दोषी पर कार्रवाई होनी चाहिए. भ्रष्टाचार की जड़ें कितनी गहरी है कि हम मासूमों की जिन्दगी से भी कोई वास्ता नहीं रह. काश कि कभी इनके परिजन भी ऐसी संकट से जूझ रहे होते! पर इनके परिजन तो प्राइवेट हॉस्पिटल में सुरक्षित रहते हैं. जनता की शिक्षा और स्वास्थ्य की जिम्मेदारी सरकार की होती है. सरकर इसीलिए तो कर वसूल करती है ताकि जनता को सुविधा मुहैया कराई जा सके पर यहाँ तो ऊपर से नीचे तक बंदर बाँट चलता रहता है.
हर बात में ७० साल का इतिहास और कांग्रेस शासन को दोषी ठहराना गलत बात है. अब आपकी सरकार तीन साल से केंद्र में है. उत्तर प्रदेश में भी अप्रत्याशित बहुमत मिला है. आपने कहा था गद्धामुक्त सड़क वह भी तस्वीरें बयान करती हैं, गड्ढामुक्त हुआ या गद्धायुक्त हुआ है. आदरणीय योगी जी और मोदी जी अभी भी देश को आपसे बहुत कुछ अपेक्षा है कृपया जनता को निराश मत कीजिए. उम्मीद है इस बार १५ अगस्त को कुछ और नई घोषणाएं करंगे. नए भारत के लिए अपने बढ़ते क़दमों की आहट भी अवश्य ही सुनायेंगे! जय हिन्द!
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर.

बिहार में फिर से बड़े घोटाले का ‘सृजन’

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मित्रों, हो सकता है कि आपने भी बचपन में आवेदन -प्रपत्र या फोटो सत्यापित करने के लिए किसी स्कूल या कॉलेज के प्रधानाचार्य की मुहर बनवाई होगी और खुद ही हस्ताक्षर करके काम चला लिया होगा. ऐसा करने वालों में से कुछ तो अब नौकरी में भी होंगे. लेकिन क्या आपने कभी ऐसा सुना है कि कोई किसी राजपत्रित अधिकारी का नकली हस्ताक्षर करके और नकली मुहर लगाकर १००० करोड़ की राशि बैंक से निकाल जाए या अपने चहेते के खाते में स्थानांतरित कर दे? शायद नहीं लेकिन जो बात दुनिया में कहीं नहीं होती वो बिहार में होती है तभी तो बिहार बर्बादी का दूसरा नाम है.


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मित्रों, बिहार आकर शब्द भी पथभ्रष्ट हो जाते हैं. अब सृजन शब्द को ही लीजिए. इसका अर्थ होता है निर्माण. कहने का मतलब यह कि सृजन एक सकारात्मक शब्द है. लेकिन बिहार में इसका दुरुपयोग घोटाला सृजित करने के लिए हुआ है और इस तरीके से हुआ है कि पूरी दुनिया सन्न है। भ्रष्टाचार की सत्यनारायण कथा इस प्रकार है कि स्वयंसेवी संस्था सृजन की संचालिका मनोरमा देवी एक विधवा महिला थी। जिसके पति अवधेश कुमार की मौत 1991 मे हो गई जो रांची में लाह अनुसंधान संस्थान में वरीय वैज्ञानिक के रूप में नौकरी करते थे। जिसके बाद मनोरमा देवी अपने बच्चे को लेकर भागलपुर चली आई और वही एक किराए के मकान में रह कर अपना और अपने परिवार का पालन पोषण करने लगी।


गरीबी से मजबूर विधवा ने पहले ठेले पर कपड़ा बेचने का काम शुरू किया फिर सिलाई का और धीरे-धीरे उसका काम इतना बढ़ने लगा कि उसमें और भी कई महिलाएं शामिल हो गई। जिसके बाद 1993-94 में मनोरमा देवी ने सृजन नाम की स्वयंसेवी संस्था की स्थापना की। मनोरमा देवी की पहचान इतनी मजबूत थी कि तमाम बड़े अधिकारी से लेकर राजनेता तक उनके बुलावे पर दौड़ते हुए पहुंच जाते थे। मनोरमा देवी ने अपने समूह में लगभग 600 महिलाओं का स्वयं सहायता समूह बनाकर उन्हें रोजगार से जोड़ा।


मित्रों,फिर शुरू हुआ हेराफेरी का खेल। मनोरमा देवी ने सहयोग समिति चलाने के लिए भागलपुर में एक मकान 35 साल तक के लिए लीज पर लिया। मकान लेने के बाद सृजन महिला विकास समिति के अकाउंट में सरकार के खजाने से महिलाओं की सहायता के लिए रुपए आने शुरू हो गए। जिसके बाद सरकारी अधिकारियों और बैंक कर्मचारियों की मिलीभगत से पैसे की हेराफेरी शुरू हो गयी।


देखते-देखते बेवजह लगभग 1000 करोड़ से ज्यादा पैसा समिति के अकाउंट में डाल दिया गया और इसके ब्याज से अधिकारी-कर्मचारी मालामाल होते चले गए। दिखावे के लिए इस संस्था के द्वारा पापड़, मसाले, साड़ियां और हैंडलूम के कपड़े बनवाए जाते थे और ‘सृजन’ ब्रांड से बाजार में बेचे जाते थे. लेकिन अब यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि पापड़ और मसाले बनाने का धंधा केवल दुनिया को गुमराह करने के लिए था. संस्था ने घोटाले के पैसे को बाजार में लगाया, साथ ही रियल एस्टेट में भी लगाया. इन पैसों से लोगों को 16% ब्याज दर पर लोन भी मुहैया कराया गया.


मित्रों, अपनी जिंदगी के 75 साल गुजारने के बाद भ्रष्टाचार की देवी मनोरमा देवी की इसी साल फरवरी में मौत हो गई। उसकी मौत के बाद उसके बेटे अमित और उसकी पत्नी प्रिया ने महिला समिति के कामकाज देखना शुरू कर दिया। जब यह मामला का पर्दाफाश हुआ दोनों फरार हो गए फिलहाल पुलिस उनकी तलाश कर रही है। 1995 से लेकर 2016 तक चले इस घोटाले की अधिकारियों द्वारा जांच पड़ताल की जा रही है और जल्द ही इस लूट में शामिल सारे लोगों को बेनकाब करने का दावा किया जा रहा है।


मित्रों, ऐसा नहीं है कि बिहार में भागलपुर ही एकमात्र अभागा जिला है बल्कि बिहार में जहाँ कहीं भी कोई सरकारी योजना चल रही है, सरकारी फंड का व्यय हो रहा है या सरकारी काम चल रहा है वहां घोटाला है,मनमानी है. इसलिए आवश्यक है कि न केवल भागलपुर में घोटाले के दौरान पदस्थापित सारे कर्मचारियों और अधिकारियों की संपत्तियों की गहनता से जाँच हो बल्कि पूरे बिहार में इस तरह का जाँच अभियान चलाया जाए और भ्रष्टाचार बिहार छोडो के नारे को वास्तविकता का अमलीजामा पहनाया जाए।


मित्रों, सवाल उठता है कि भागलपुर जिले में तीन-तीन डीएम आए और चले गए और तीनों के समय उनके नकली हस्ताक्षर से सरकारी खाते से करोड़ों रुपये गायब कर दिए गए और कैसे उनलोगों को कानोंकान खबर तक नहीं हुई? ऐसा कैसे संभव है? मानो गबन न हुआ झपटमारी हो गई. अगर ऐसा हुआ भी है तो ऐसा होना उन साहिबानों की योग्यता पर प्रश्न-चिन्ह लगाता है और प्रश्न-चिन्ह लगाता है भारतीय प्रशासनिक सेवा में बहाली की प्रक्रिया पर.सवालों के घेरे में एजी और सीएजी जैसी संवैधानिक संस्थाएं भी हैं जो २२ सालों में सरकारी चोरों को पकड़ने में विफल रहीं. कदाचित यह घोटाला आगे भी धूमधाम से चलता रहता अगर भागलपुर के वर्तमान डीएम आदेश तितरमारे का महज ढाई करोड़ का चेक कूद कर वापस न आ गया होता।


मित्रों, बिहार सरकार की काबिलियत पर सवाल उठाने का तो प्रश्न ही नहीं. मैं जबसे नीतीश २०१३ में एनडीए से अलग हुए तभी से कहता आ रहा हूँ कि बिहार में सरकार की मौत हो चुकी है और चारों तरफ अराजकता का माहौल है. लगता है जैसे बिहार में शाहे बेखबर बहादुरशाह प्रथम का शासन हो. मुख्यमंत्री न जाने किस दुनिया में मस्त थे. कहीं कुछ भी ठीक नहीं. हाईकोर्ट भी कहता है जब पैसे लेकर ही बहाली करनी है तो विज्ञापन,परीक्षा और साक्षात्कार का नाटक क्यों करते हो? सीधे गाँधी मैदान में शामियाना लगाकर नियुक्ति-पत्र क्यों नहीं बाँट देते?

बाढ़ की त्रासदी का प्रणेता धनलोलुप मानव स्वयं

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जब बरसात के पानी का बोझ नदी झेल नहीं पाती तो उसका जल अपनी राह को खोजते हुए नदी से बाहर निकल आता है और आसपास फैलते हुए अपनी तेज धाराओं को चारों ओर फैला देता है. इसी को हम बाढ़ कहते हैं. जब नदी, झील या ताल तलैया तथा तालाब में अतिवृष्टि के कारण जल समां नहीं पाता, तो बाढ़ आती है. जलप्रवाह में नदियों में बाधा होने से बाढ़ आती है. यह जल निकासी के अभाव के कारण होता है. मुख्य नदी के जलस्तर बढ़ने पर यह जल सहायक नदियों से होते हुए आसपास के क्षेत्रों में बाढ़ उत्पन्न कर देता है. मानसून के आरम्भ से ही नदियां उफान पर आने लगती है और तबाही का तांडव शुरू हो जाता है.


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सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है, अतः बाढ़ से मानव का आदिकाल से सम्बन्ध रहा है. जब -जब बाढ़ आई मानव को तबाही का सामना करना पड़ा है. परन्तु पिछले कुछ वर्षों से बाढ़ के कारण जो तबाही मची है, वह विकराल ही है. मजे की बात है कि पिछले दशकों के तुलना में कुछ वर्षों से बरसात की मात्रा में कमी आयी है, लेकिन बाढ़ से होने वाली तबाही हर साल बढ़ती ही जा रही है. नदियों के विशेषज्ञ चिंतित इसलिए हैं कि नदियों का जलस्तर कम हो रहा है. अब सोचने लायक विषय है कि वर्षा कम हो रही है, नदियों का औसत जलस्तर भी कम हो रहा है, पर बाढ़ ज्यादा आ रही है और विकराल भी. राजस्थान जैसा इलाका, जो मरुभूमि था वहां भी बाढ़ का प्रकोप झेलना पड़ रहा है.


बाढ़ की समस्या वस्तुतः भारत के हर क्षेत्र में है. गंगा बेसिन के इलाके में गंगा, यमुना, घाघरा, गंडक, कोशी, बागमती, कमला, सोन, महानंदा आदि नदियां तथा इनकी सहायक व पूरक नदियां नेपाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, मध्यप्रदेश एवं बंगाल में फैली हुयी हैं. इनके किनारे पहले घने जंगल हुआ करते थे, जहाँ आज घनी बस्तियां फली हुयी हैं. हिमालय से निकलने वाली नदियां चाहे वह गंगा हो, ब्रह्मपुत्र हो या सिंध हो या फिर कोई अन्य या उनकी सहायक नदियां, उनके उद्गम क्षेत्र के पहाड़ों (ढलानों) की मिट्टी को सम्भालकर या बांधकर रखने वाले जंगल को मानव ने तथाकथित विकास के नाम पर उजाड़ दिया और उन पहाड़ों को नग्न कर दिया. फिर क्या, पानी को रोकने वाला कोई नहीं रहा और उसे धरती के अंदर समाने का अवसर नहीं मिला, तो उसकी गति निर्बाध हो गयी.


जब इन पहाड़ी ढलानों पर पानी आता है, तो पूरे वर्ष झरनों से होते हुए यह नदियों में आता रहता है और मानसून में इन पहाड़ों पर अतिवृष्टि हो न हो थोड़ी भी बारिश हो तो सारा जल अविरल नदियों में ही आता है, जो बाढ़ के रूप में मैदानी इलाकों को तबाह कर देता है. मिट्टी को रोकने वाले पेड़ पौधे तो नष्ट हो गए, फिर पहाड़ के ढलानों की मिट्टी नदियों में समाती ही नहीं बैठ जाती है और नदियों की गहराई कम होती गयी. फलतः पानी को समाये रखने की क्षमता भी कम हो गयी. नेपाल के पहाड़ों और मैदानों के बी किसी समय ‘चार कोशे’ झाड़ी के नाम से प्रख्यात जंगल हुआ करता था, जो उत्तरी क्षेत्र के पहाड़ों पर होने वाली बरसात के पानी को आहिस्ता-आहिस्ती नीचे आने देता था. साथ ही साथ बहुत सारा पानी उन्ही इलाकों में ठहराव पाता था, जो धारित में भी समां जाता था. अतः बाढ़ कम आती थी या इतनी विकराल नहीं होती थी. यही हालत भारत के पहाड़ी इलाकों में भी थी. पर अंग्रेजों के ज़माने में जो वनसंहार शुरू हुआ वह अभी पिछले दिनों तक कायम ही था और स्थिति ऐसी हो गयी की सारा पहाड़ नग्न हो गया. पानी रोकने वाला, उसे ठौर देने वाला कोई नहीं रहा. भूस्खलन, भू-क्षरण में तेजी आयी और जल प्रवाह को गति मिली, परिणाम भयानक बाढ़ की त्रासदी.


असम के जंगल का संहार मनुष्यों ने इस हद तक किया कि ब्रह्मपुत्र की ४१ सहायक नदियां मिलकर असम को बाढ़ की भीषण त्रासदी झेलने को विवश कर देती हैं. ब्रह्मपुत्र घाटी और उत्तर-पूर्व के पहाड़ों के मध्य औसतन ६०० मिमि वर्षा होती है और यह पानी बिना किसी रोक रूकावट के असम के निचले हिस्सों में आ जाता है और फिर त्रासदी को जन्म देता है. मध्य भारत तथा दक्षिण भारत में वैतरणी, ब्राह्मणी, महानदी एवं नर्मदा, गोदावरी, ताप्ती, कृष्णा नदियों के किनारे घनी बस्ती है और चक्रवाती तूफान आते रहते हैं, जो बाढ़ को जन्‍म देते हैं, जिससे तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश और उड़ीसा भी प्रभावित होते हैं.


बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होने के बाद त्रासदी से निपटने के राग बहुत गाए जाते हैं, पर स्थायी उपाय पर बहुत कम विचार होता है. बाढ़ की स्थिति न हो इसके लिए निवारण (प्रिवेंशन) का प्रयास कम होता है. वर्षा के पानी को ठहराव मिले इसके लिए वन विकास (एफॉरेस्ट्रेशन ) वनीकरण को प्रोत्साहन ही नहीं वरन उच्च प्राथमिकता देना चाहिए. विकास के नाम पर या धनलोलुपता के कारण ध्वस्त किए गए नदी, नाले, तालाब, झील, ताल-तलैया को पुनर्जीवित करना पड़ेगा.


कंक्रीटों के जंगलों का विकास को रोकना पड़ेगा. अनुचित या स्वार्थ पूर्ण बांध को हटाकर आवश्यक बांध का निर्माण करना पड़ेगा. नदियों तथा जलाशयों का दुरूपयोग बंदकर सदुपयोग करना पड़ेगा. तत्काल ही सभी नदियों तथा जलाशयों का गहरीकरण भी वैज्ञानिक विधि से करना पड़ेगा. अगर समय रहते आवश्यक और उचित उपाय नहीं किए गए, तो वह दिन दूर नहीं जब पीने का पानी न मिलने से और बाढ़ के पानी से मनुष्य जाति ही सम्पूर्ण जीव-जंतु को विनाश का सामना करना पड़ेगा. जल-प्रलय होगा और धरती पर कोई नहीं बचेगा. इस अंत का जिम्मेदार और कोई नहीं वरन बाढ़ की त्रासदी का प्रणेता स्वयं धनलोलुप मानव ही होगा.


युवा पहलवान जो काफी थका हुआ था, वह अंजाम समझता था

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कभी शीशा,कभी पत्थर,कभी दिल  को ही दे मारा,

सितमगर मारना था जब,मुझे तो मार ही डाला।


एक पहलवान था, युवा और बेहद ताक़तवर। एक बार उस इलाक़े के राजा ने कुश्ती का आयोजन किया। कुश्ती में उस पहलवान ने भी हिस्सा लिया। राजा ने अपने एक पहलवान ‘प्रवेश परीक्षा’ को उस पहलवान के मुक़ाबले में उतारा। युवा पहलवान ने राजा के पहलवान ‘प्रवेश परीक्षा’ को चुटकी में पटक दिया।


अब वह विजेता घोषित किया जाने वाला था। तभी राजा ने कहा- अभी नहीं, तुम अभी विजेता नहीं हो। अभी तुम्हें मेरे पहलवान मुख्य परीक्षा से मुक़ाबला करके उसे भी हराना होगा। तब जाकर तुम विजेता माने जाओगे। युवा पहलवान इस पर भी राज़ी हो गया।


अब उसका मुक़ाबला मुख्य परीक्षा पहलवान से हुआ। युवा पहलवान ने कुछ संघर्ष के बाद उसे भी पटक दिया। इस प्रयास में युवा पहलवान हांफ गया था। मगर उसे इत्मीनान था कि उसने मुक़ाबला जीत लिया है और वही विजेता होगा। पर उसका यह सोचना गलत साबित हुआ।


राजा बोला- नहीं, यह जीत नहीं मानी जायेगी। अब तुम्हें मेरे टीईटी पहलवान से मुक़ाबला करके उसे हराकर यह साबित करना होगा कि वाक़ई में तुम में दम है। युवा पहलवान की साँस फूल रही थी, इसके बावजूद भी उसने इस चैलेंज को क़बूल कर लिया। टीईटी पहलवान काफी दमदार था, युवा पहलवान को उसको परास्त करने में छक्के छूट गए। मगर उसने अपनी पूरी क्षमता का प्रयोग करके टीईटी पहलवान को पटक ही दिया।


अब उसे पूरा विश्वास था कि वह विजयी है और उसे उसका पुरस्कार अब मिलने ही वाला है, लेकिन उसका यह विश्वास जल्द ही शीशे की तरह चकनाचूर हो गया। राजा बोला अभी नहीं। अभी तो तुम्हें मेरे लिखित परीक्षा पहलवान से मुक़ाबला करना है, तब मैं तुम्हें असली पहलवान मानूँगा।


युवा पहलवान तीन-तीन पहलवानों से मुक़ाबला करने के बाद काफी थक गया था। उसकी सांस उखड़ रही थी। वह ठीक से खड़ा नहीं हो पा रहा था। उसका सारा बदन दुःख रहा था, लेकिन वह जिस पुरस्कार को प्राप्त करने आया था, वह उसे नहीं मिला था। इसलिए थका होने के बाद भी वह मुक़ाबले के लिए तैयार हो गया।


उसके सामने इसके सिवा कोई और रास्ता भी नहीं था। उसने चैलेंज क़बूल कर लिया। लिखित परीक्षा पहलवान से मुक़ाबला करने को तैयार हो गया। अब उसका अंजाम क्या होना था। युवा पहलवान जो काफी थका हुआ था, वह अंजाम समझता था, पर क्या करता, राजा के सामने विवश था। उसे लड़ना था, तय हार को जीत में बदलने के लिए। अंजाम तो जनता जानती थी, राजा जानता था, नहीं वह तो यही चाहता था।

दुर्गा पूजा के नाम पर पापाचार

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मित्रों, अगर मैं कहूं कि धर्म दुनिया का सबसे जटिल विषय है तो यह कदापि अतिशयोक्ति नहीं होगी. विडंबना यह है कि कई बार जब कोई धर्म अपने मूल स्वरुप में सर्वकल्याणकारी हो तो उसमें स्वार्थवश इतने अवांछित परिवर्तन कर दिए जाते हैं कि वह घृणित हो जाता है तो वहीँ दूसरी ओर कोई धर्म जब अपने मूल स्वरुप में ही राक्षसी होता है और उसमें देश, काल और परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन आवश्यक हो जाता है तब उसके अनुयायी परिवर्तन को तैयार ही नहीं होते.
मित्रों, पहले प्रकार के धर्म का सर्वोत्तम उदाहरण बौद्ध धर्म है और दूसरे प्रकार के धर्म का इस्लाम. बुद्ध ने कहा कि ईश्वर होता ही नहीं है लेकिन उनके अनुयायियों ने परवर्ती काल में उनको ही ईश्वर बना दिया. फिर महायान-हीनयान-वज्रयान-तंत्रयान इतने यान आते गए कि बुद्ध द्वारा संसार को दिया गया मूल ज्ञान ही लुप्त हो गया. कुछ ऐसी ही स्थिति कबीर पंथ की हुई. कबीर ने कहा मैं तो कूता राम का मोतिया मेरा नाऊं, गले राम की जेवड़ी जित खींचे तित जाऊं. लेकिन कबीरपंथियों ने उनको इन्सान से सीधे उनके आराध्य राम से भी बड़ा पारब्रह्मपरमेश्वर बना दिया. राधे मां और राम रहीम सिंह ने तो एक कदम आगे बढ़ते हुए खुद को ही भगवान घोषित कर दिया. एक और बाबा थे पंजाब के जिनका जन्म बिहार में हुआ था नाम था आशुतोष महाराज. उनके अनुयायी यह कहकर पिछले ३-४ साल से उनका अंतिम संस्कार नहीं कर रहे हैं कि आशुतोष फिर से जीवित हो जाएंगे. मतलब कि चाहे धर्मगुरु हो या उनके अनुयायी वे धर्म, ईश्वर और नैतिकता की कई बार वैसी व्याख्या करते हैं जिससे उनका स्वार्थ सधता हो.
मित्रों, दुर्भाग्यवश इस तरह की दुष्टता से जगत की जननी और पालक माँ दुर्गा भी नहीं बची हैं. यह सही है कि मार्कंडेय पुराण के अनुसार दुर्गा माता ने रक्तबीज का खून पीया था और राक्षसों की सेना को सीधे निगल गई थीं लेकिन ऐसा करना युद्धकाल की आवश्यकता थी. रक्तबीज खून के हर बूँद के भूमि पर गिरने से एक रक्तबीज पैदा हो जा रहा था. इसी प्रकार चंड-मुंड के संहार के समय उन्होंने रथ-हाथी-घोड़े और युद्धास्त्रों सहित सीधे-सीधे पूरी सेना को ही निगल लिया था लेकिन वह तो उनकी लीला थी. इसका मतलब यह नहीं कि हम उनको निर्दोष और मजबूर जानवरों की बलि देने लगें. माता ने राक्षसों का संहार किया था न कि निरीह और निर्दोष जानवरों का. इसी पुस्तक के अनुसार महिषासुर-वध से पहले उन्होंने मधुपान किया था जिससे उनके नेत्र लाल हो गए थे. हो सकता है कि यहाँ लेखक ने मदिरा को मधु कहा हो. मगर युद्ध की स्थिति विशेष होती है सामान्य नहीं. कई बार अग्रिम पर्वतीय मोर्चे पर तैनात सैनिकों को भारत सरकार स्वयं शराब उपलब्ध करवाती है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि सैनिक शराबी हो जाएँ और रिटायर्मेंट के बाद सामाजिक समस्या बन जाएँ.
मित्रों, अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि पुराणों की रचना गुप्त और परवर्ती गुप्त काल में हुई थी. इतिहास साक्षी है कि यह वही काल था जब बौद्ध और सनातन धर्म पर तांत्रिकों का कब्ज़ा हो चुका था इसलिए हो सकता है कि तांत्रिकों ने जानबूझकर श्री दुर्गा सप्तशती में इस तरह के वर्णन डाल दिए हों जिनमें माता को रक्त-मांसभक्षक और मद्यप बताया गया हो. समयानुसार ईश्वर का रूप कैसे बदलता है इसके बुद्ध के बाद सबसे बड़े प्रमाण हैं श्रीकृष्ण जो महाभारत काल में योगेश्वर होते हैं लेकिन रीतिकाल आते-आते अपने भक्तों द्वारा भोगेश्वर बना दिए जाते हैं.
मित्रों, कहने का तात्पर्य यह कि मां के नाम पर बलि देना, मांस खाना या शराब पीना न केवल गलत है बल्कि अपराध है इसलिए इस पर तुरंत रोक लगनी चाहिए. फिर गीता-प्रेस द्वारा प्रकाशित दुर्गा-सप्तशती में दुर्गा पूजा की जो विधि बताई गयी है उसमें तो कहीं भी इन राक्षसी या तांत्रिक विधियों की चर्चा नहीं है. यानि जब माँ को सात्विक विधि से भी प्रसन्न किया जा सकता है तो फिर राक्षसी कर्म करने की आवश्यकता ही क्या है?
मित्रों, माता क्या सिर्फ मानवों की माता हैं? क्या वो अन्य प्राणियों की माता नहीं हैं? या फिर अन्य प्राणियों में प्राणरूप में माता की मौजूदगी नहीं है? दुर्गा-सप्तशती तो कहती है कि देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोखिलस्य। प्रसीद विश्वेश्वरी पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य।। (अध्याय ११-३) सम्पूर्ण जगत की माता प्रसन्न होओ. विश्वेश्वरी विश्व की रक्षा करो. देवी तुम्ही चराचर जगत की अधीश्वरी हो. विद्याः समस्तास्तव देवी भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकला जगस्तु. त्वयैकया पूरितम्बयैतत का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः. (अध्याय ११-६) देवी, सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरुप हैं. जगत में जितनी स्त्रियाँ हैं वे सब तुम्हारी ही मूर्तियां हैं. जगदम्ब एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है. तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? आदि-आदि.
मित्रों, मेरे कहने का मतलब यह है कि जिसको मांस-मदिरा का भक्षण करना है करें (यद्यपि मानव शरीर इसके हिसाब से नहीं बनाया गया है) लेकिन इसमें परम करुणामयी और परमपवित्र माता का नाम न घसीटें-खस्सी मार घरबैया खाए हत्या लेले पाहुन जाए क्यों? मेरी माँ तो करुणा की महासागर हैं, निरंतर अहैतुकी कृपा बरसाने वाली हैं वे कैसे किसी मूक-मजबूर का रक्तपान कर प्रसन्न हो सकती हैं? हाँ मेरी माँ दुष्टों का संहार करनेवाली जरूर हैं और तदनुसार दुष्टता का भी इसलिए माँ के साथ माँ का नाम लेकर कृपया छल करने की सोंचिएगा भी नहीं.
मित्रों, इसी प्रकार कई स्थानों पर दुर्गा पूजा के नाम पर किशोरियों को पुजारियों के साथ अधनंगे रखे जाने की परंपरा है. इस तरह की देवदासी प्रकार की हरेक लोकनिन्दित परंपरा भी तत्काल बंद होनी चाहिए क्योंकि स्वयं दुर्गा सप्तशती कहती है कि प्रत्येक स्त्री स्वयं दुर्गास्वरूप है इसलिए स्त्री की गरिमा और सम्मान के साथ किसी भी तरह का खिलवाड़ करना सीधे-सीधे स्वयं दुर्गा माता की गरिमा और सम्मान के साथ खिलवाड़ करना होगा.

हमारी शिक्षा व्यवस्था तालिबानी शिकंजे से बाहर कब निकलेगी?

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तन कोमल मन सुन्दर, हैं बच्चे बड़ों से बेहतर
इनमें छूत और छात नहीं, झूठी जात और पात नहीं
भाषा की तक़रार नहीं, मज़हब की दीवार नहीं
इनकी नज़रों में एक हैं, मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारे
बच्चे मन के सच्चे सारी जग के आँख के तारे
ये वो नन्हे फूल हैं जो भगवान को लगते प्यारे

मासूम बच्चों के बारे में साहिर लुधियानवी साहब ने फिल्म ‘दो कलियाँ’ के उपरोक्त गीत में वो सबकुछ कह दिया है जो छोटे बच्चों की सबसे बड़ी खासियत होती है. धर्म, भाषा और मंदिर-मस्जिद के नाम पर आपस में लड़ने वाले और सोशल मीडिया के जरिये समाज में वैमनस्य फैलाने वाले लोगों को सदभाव, भाईचारे और बिना किसी भेदभाव के सबसे प्रेम करने के रूप में ईश्वर की सहज सुलभ निकटता आदि के मामले में मासूम बच्चों से सबक हासिल करना चाहिए. अपने को सभ्य, सुशिक्षित और समझदार समझने वाले स्कूल के प्रबंधक और शिक्षित व बुद्धिजीवी कहलाने वाले स्कूल के टीचर मासूम बच्चों के साथ कैसा अमानवीव, असभ्य और खतरनाक व्यवहार कर रहे हैं, आज इसी विषय पर चर्चा करूंगा. सरकारी स्कूलों के जर्जर भवन व मुफ्त वाली पढाई की हालत इतनी ख़राब है कि अधिकतर बच्चे सरकारी स्कूल की बजाय अंग्रेजी माध्यम वाले निजी स्कूलों में पढ़ते हैं. हमारे गाँव के ज्यादातर घरों में बच्चों को पढ़ाने वाला वाला कोई है ही नहीं. अधिकतर घरों की औरतें अशिक्षित हैं. बच्चों के पिता कहीं जाकर दिनभर मजदूरी करते हैं.

किसी घर में कुछ पढ़ा-लिखा कोई बड़ा भाई है तो उसे जुआ खेलने और दारु पीने से ही फुर्सत नहीं है. एलकेजी और यूकेजी में पढ़ने वाले छोटे-छोटे मासूम बच्चों को भारी भरकम बैग पीठ पर लादकर ट्यूशन पढ़ने के लिए जाते हुए देखता हूँ तो भारत की शिक्षा व्यवस्था पर मुझे बहुत अफ़सोस होता है. एक तो तोते जैसी रट्टामार बेहद बुरी शिक्षा और दूसरे स्कूल से लेकर ट्यूशन (गृहशिक्षण) तक में मास्टरों के जुल्मोसितम. भय के साये में जीते मासूम बच्चों की ढेर सी खूबियां और उनके भीतर स्थित नैसर्गिक प्रतिभा ऐसे ख़राब माहौल में भला क्या विकसित होंगी? हमारे देश में तो पूर्वजन्म के संस्कारों और भगवान् के भरोसे ही अधिकतर प्रतिभाएं निखरती हैं. शिक्षा को कमाई का जरिया भर समझने वाले स्कूलों और बच्चों की समस्याओं से पूर्णतः बेखबर केंद्र व राज्य सरकारों की भूमिका नाममात्र भर की है. केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (Central Board of Secondary Education या सीबीएसई) द्वारा सीधे संचालित केन्द्रीय विद्यालय और सरकारी विद्यालय उसके सभी नियमों का कड़ाई से पालन करते हैं.

लेकिन उससे जुड़े देशभर के लगभग छह हजार स्वतंत्र विद्यालय क्या कर रहे हैं, क्या इस बात की सीबीएसई को जानकारी है? जब किसी निजी स्कूल में प्रद्युम्‍न हत्‍याकांड जैसा केस हो जाता है, तभी कुछ देर के सीबीएसई जागती है और उपदेश देकर फिर सो जाती है. निजी स्कूलों के मामले में सीबीएसई की कार्यप्रणाली ठीक वैसी ही है, जैसे कोई ढेर सारे बच्चे पैदा करके उन्हें सड़कों पर भगवान् के भरोसे जीने-मरने को लावारिश छोड़ दे. सीबीएसई से जुड़े हुए देशभर के सारे निजी स्कूल अभिभावकों से न सिर्फ मनमानी फ़ीस वसूल रहे हैं, बल्कि मासूम बच्चों को बुरी तरह से शारीरिक व मानसिक रूप से टॉर्चर (प्रताड़ित) भी कर रहे हैं. लेकिन उनके खिलाफ न तो सीबीएसई कोई कार्यवाही कर रही है और न ही केंद्र या राज्य सरकार. सीबीएसई के नियमों के मुताबिक़ बच्चों को मारना, डांटना अथवा किसी भी तरह से उन्हें अपमानित करना सख्त मना है और इस नियम का पूरी तरह से पालन उससे जुड़े केंद्रीय और सरकारी विद्यालय कर रहे हैं, लेकिन सीबीएसई से संबद्ध निजी स्कूल इस नियम की पूरी तरह से धज्जियां उड़ा रहे हैं.

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मैंने निजी स्कूलों में एलकेजी और यूकेजी में पढ़ने वाले कुछ मासूम बच्चों से बात की. मैंने उनसे पूछा कि क्या आपके स्कूल में टीचर मारते हैं? सब बच्चों ने कहा कि हाँ मारते हैं. सारे टीचर मारते हैं. सबसे ज्यादा तो प्रिंसिपल मैडम मारती हैं. स्कूल के प्रबंधक भी मारते हैं. मैंने एक बच्चे से पूछा कि आपके टीचर क्यों और कैसे मारते हैं? उस बच्चे ने बताया कि टीचर थोड़ा सा पढ़ाती हैं और देर सारा होमवर्क देती हैं. जो बच्चे होमवर्क करके नहीं ले जाते हैं, टीचर उन्हें देर तक खड़ा रखती हैं और फिर जब बच्चे थक जाते हैं तो बहुत जोर-जोर से उनके गाल पर थप्पड़ मार मार कर बैठाती जाती हैं. बच्चों को टीचर किस चीज से मारते हैं? यह पूछने पर ज्यादातर मासूमों ने बताया कि थप्पड़ से गाल, पीठ और सर पर मारते हैं. कुछ ने कहा कि हमारे स्कूल में थप्पड़ और मुक्के के अलावा स्केल और छड़ी से भी मारते हैं. मुझे उनकी बातों में पूरी सच्चाई नजर आई, क्योंकि एक तो मासूम बच्चे झूठ नहीं बोलते हैं. और दूसरे जब मेरी बेटी साढ़े तीन साल की थी और एलकेजी में पढ़ती थी, तब उसे उसकी टीचर ने मारा था.

जब कई बार टीचरों ने मेरी बेटी को मारा तब स्कूल के प्रबंधक से मैंने साफ-साफ़ कहा कि मैं आपके टीचरों और स्कूल के खिलाफ केस करने जा रहा हूँ. यह सुनते ही उनके होश ठिकाने आ गए. मेरी बच्ची जहाँ बैठती थी, वहां दीवाल पर लिखवा दिया, ‘इसे मारना नहीं.’ स्कूल के पढ़ेलिखे बुद्धिजीवी प्रबंधक बच्चों को मारने को प्रसाद देना कहते हैं और इसे जरुरी मानते हैं. स्कूल के प्रबंधक की जब ऐसी तालिबानी सोच होगी तो कम वेतन पर रखे जाने अप्रशिक्षित टीचरों की सोच क्या होगी, जिन्हे पढ़ाना कम और मारना ही ज्यादा आता है. सीबीएसई यदि हर निजी स्कूल में सीसीटीवी कैमरे लगना अनिवार्य कर दे तो इनकी सब पोलपट्टी खुल जाएगी. सीबीएसई के सुझाव देने पर भी निजी स्कूल सीसीटीवी कैमरे नहीं लगवा रहे हैं. केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड इसे अनिवार्य करे और बच्चों के लिए एक हेल्पलाइन नंबर जारी करे, जिसे पर बच्चे टॉर्चर की शिकायत कर सकें. निजी स्कूलों की मनमानी फ़ीस वसूली पर भी सीबीएसई अंकुश लगाए. निजी स्कूलों से मिलीभगत के कारण सरकार तो कुछ करने से रही.

देशभर के वो सभी निजी स्कूल जो अभिभावकों से मनमानी फ़ीस वसूल रहे हैं और मासूम बच्चों को बुरी तरह से शारीरिक व मानसिक रूप से टॉर्चर (प्रताड़ित) कर रहे हैं, उनकी मान्यता न सिर्फ रद्द होनी चाहिए, बल्कि उनके खिलाफ सख्त क़ानूनी कार्यवाही भी होनी चाहिए. राज्य सरकारों द्वारा संचालित प्राइमरी स्कूलों में भी बच्चों को टीचर थप्पड़, मुक्का, स्केल और डंडे से पीटते हैं. कुछ दिनों पहले दिल्ली के नगर निगम के एक स्कूल में पांचवीं में पढ़ने वाले एक मासूम को टीचर ने समर्सिबल पम्प वाले पानी के पाइप से पीटा था. बच्चे के शरीर पर जख्मों के लाल निशान उभर आए थे और उसे इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था. बच्चे की गलती महज इतनी थी कि मासूम होमवर्क को रफ कॉपी के बजाय स्कूल की कॉपी में कर लाया था. टीचर की मार से डरा सहमा बच्चा अब स्कूल ही नहीं जाना चाहता है. सबसे बड़ी अफ़सोस की बात यह है कि स्कूल प्रशासन से टीचर की बेरहमी की शिकायत करने पर भी बेरहम टीचर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई.

पिछले साल समस्तीपुर के एक सरकारी स्कूल में तैनात एक शिक्षक ने दलित बच्ची को पीट-पीट कर अधमरा कर दिया था. कक्षा दो में पढ़ने वाली बच्ची को दोपहर के समय स्कूल में मिलने वाली खिचड़ी खाने के बाद क्लास में नींद आ गयी थी. जिससे नाराज शिक्षक ने बच्ची को क्लास से बाहर निकालकर डंडे से इतनी पिटाई की कि मासूम बेहोश होकर गिर पड़ी. पिटाई से बच्ची के दाएं हाथ की हड्डी टूट गई थी. भाजपा की केंद्र सरकार से बड़ी उम्मीद थी कि वो प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में कोई बड़ा सुधार करेगी और उसे तालिबानी शिकंजे से बाहर निकलेगी, शिक्षा के नाम पर देश के भविष्य से हो रहा खिलवाड़ रोकेगी, लेकिन उसने इस मामले में अभी तक तो देशवासियों को निराश ही किया है. उत्तर प्रदेश में योगी सरकार का भी वही हाल है. एक तरफ जहाँ बच्चे स्कूलों में सुरक्षित नहीं हैं, अध्यापकों द्वारा शारीरिक-मानसिक रूप से प्रताड़ित किये जा रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ निजी स्कूलों की मनमानी फ़ीस वसूली से अभिभावक भी बेहद परेशान हैं. सरकार तो कुछ करने से रही, अभिभावकों को ही एकजुट हो संघर्ष करना पडेगा.

छत्तीसगढ़ में शिक्षा कर्मियों के आन्दोलन के समर्थन में

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हर आन्दोलन के साथ कुछ ऐसी भी मांगें जुडी रहती हैं, जो अत्यंत साधारण होती हैं| उन पर अनमने ढंग से हाँ करके यह प्रचार करना कि शिक्षा कर्मियों की मांगों को मुख्यमंत्री ने मान लिया, यह अखबारों और लोकल चैनल के माध्यम से सरकार का ही काम था| शिक्षा कर्मी सिर्फ यह कहकर मुख्यमंत्री निवास से बाहर आये थे कि वे बैठक करके निर्णय को बताएँगे| प्रत्येक संगठन जब सरकार या प्रबंधन की मांगों से असहमत होता है तो उसे ऐसा ही करना पड़ता है| यह एक जनतांत्रिक बात है, जिसका पालन सरकार और उसके नुमाइंदे तो नहीं करते, पर, ट्रेड युनियन जैसे संगठनों में यह अभी तक जारी है और देश में भी थोड़ा बहुत जो जनतंत्र है, उसमें इसका बड़ा योगदान है| यदि सरकार ईमानदार और सही है तो सार्वजनिक रूप से घोषणा क्यों नहीं करती कि शिक्षाकर्मियों को किन मांगों को उसने मंजूर किया है? सारा कच्चा चिठ्ठा बाहर आ जाएगा| हड़ताली कर्मियों की आलोचना आज से नहीं हमेशा से समाज में सरकार के द्वारा की जाती है और कराई जाती है| छत्तीसगढ़ में यह कोई नयी बात नहीं है|

शिक्षा कर्मियों की कम से कम तीन मांगे तो ऐसी हैं, जो बरसों से लंबित हैं| पहली यह कि शिक्षा कर्मियों का राज्य सरकार संविलियन करे| क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि वर्षों शिक्षा क्षेत्र में सेवाएं देने के बाद भी और समय समय पर, जब भी वे आन्दोलन की राह पर चले, उनके मानदेय को बढ़ाते रहने के बावजूद, शिक्षाकर्मी आज भी असंगठित क्षेत्र के ठेका मजदूरों की हैसियत में हैं| आज राज्य सरकार यह प्रचारित करने में लगी हुई है कि वर्ष 1998 में शिक्षकों के पद को ‘मृत’ घोषित कर यह नीति बनी थी कि भविष्य में शिक्षकों की नियुक्ति नहीं की जायेगी| यह एक गढ़ा हुआ तर्क है| पहली बात तो 1998 में यह नीति मध्यप्रदेश की दिग्विजय सरकार ने बनाई थी और तब भी इसका व्यापक विरोध पूरे मध्यप्रदेश में हुआ था| अब, जबकि छत्तीसगढ़ पृथक राज्य है, वह मध्यप्रदेश सरकार की बनाई हुई नीति को ढोने के लिए बाध्य नहीं है| दूसरी और महत्वपूर्ण बात कि वर्ष 2003 और 2008 में हुए विधानसभा के चुनावों के दौरान भाजपा ने अपने घोषणापत्रों में शिक्षा कर्मियों को संविलियन देने का वायदा किया था| उसी वायदे को याद दिलाते हुए शिक्षा कर्मियों ने 2011 तथा 2012 में हड़तालें की थीं| क्या ऐसा वायदे करते समय इस सरकार को और भाजपा को नहीं मालूम था कि वह एक तथाकथित ‘मृत’ पड़ के लिए यह वायदा कर रही है? भाजपा की रमन सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुकरते हुए आज उनके आन्दोलन को दबाने के लिए वही कदम उठा रही है जो उसने 2011 तथा 2012 में उठाये थे| याने बर्खास्तगी की धमकी और कुछ दिनों बाद शायद उनके पंडाल उखाड़ने तथा उन्हें लाठियों से खदेड़ने का काम भी शुरू हो जाए तो आश्चर्य नहीं होगा| यह गुस्सा दिखाना कि मुख्यमंत्री के बात करने के बाद भी हड़ताल की जा रही है, लोकतांत्रिक नहीं है|

दूसरा मुद्दा उनको दिये जाने वाले मानदेय से संबंधित है| आज भी शिक्षा कर्मियों को अन्य नियमित कर्मचारियों के समान भुगतान नहीं होता है| प्रत्येक दो तीन माह में राज्य मंत्रीमंडल उनके लिए अलग से राशी जारी करता है और ब्लाक मुखायल पहुचते पहुँचते अनेक बार दो तीन माह का समय बीत जाता है| शिक्षा कर्मियों के लिए तीन से चार माह बिना वेतन गुजारने में और कितना कष्ट और समाज में कितने उपहास का पात्र बनना पड़ता है, यह उनके साथ नजदीक से जुड़े बिना नहीं जाना जा सकता| यही कारण है कि यहीं छत्तीसगढ़ में बीमारी का इलाज नहीं करवा पाने के कारण या बाजार में उधारी नहीं चुकाने के कारण शिक्षा कर्मियों की मृत्यु या आत्महत्या के मामले भी सामने आये है| उनकी सातवें वेतन आयोग के समान वेतन मान देने की मांग जायज मांग है| विडंबना है कि एक दिन की विधायकी से प्रत्येक बार वेतन में बढ़ोत्तरी का फायदा तथा एक दिन की विधायकी से पेंशन के लिए हकदार होने और उसमें हर बढ़ोत्तरी का फ़ायदा लेने वाले विधायकों और उन्हीं में से चुने गये मुख्यमंत्री और मंत्रियों को शिक्षा कर्मियों की मांग बेजा लगती है| पंचायत कर्मी होने का अर्थ जायज वेतन से वंचित रहना तो कतई नहीं हो सकता|

छत्तीसगढ़ में अधिकाँश शिक्षाकर्मी राज्य गठन के बाद नियुक्त हुए है| जिला पंचायतों ने न केवल उनको भर्ती करने का दायित्व उठाया बल्कि उनकी पदस्थापना भी जिले में पंचायत के द्वारा ही की गयी है| आज जिलों की संख्या बढ़कर 27 हो गयी है| जिले बदलने से शिक्षा कर्मियों का स्थानान्तरण लगभग बंद हो गया है| जबकि नया जिला बनने के बाद उन्हें अपने मूल जिले में जाने का अवसर मिलना चाहिये था| उनके स्थानान्तारण की कोई भी नीति पिछले 17 सालों में सरकार नहीं बना पाई है| इसने उनके जीवन को कठिन बना दिया है| यहाँ यह उल्लेखनीय है कि उन्हें राज्य सरकार संविलियन देने तैयार नहीं| उन्हें शासकीय कर्मचारी का दर्जा देने तैयार नहीं, पर, स्थानान्तारण नीति राज्य सरकार घोषित करती है| यह सत्ता के पाखंड की चरम सीमा है| उनकी एक और प्रमुख मांग पदोन्नति की भी है| पर, उस सरकार से जो उन्हें उचित सम्मान नहीं दे पा रही, पदोन्नति की मांग पर मैं कुछ कहना नहीं चाहता| मैं नहीं जानता कि वे इस आन्दोलन को संवेदनहीन सरकार के दबाव के सामने कितने दिन चला पायेंगे, पर, उनके आन्दोलन को एकदम खारिज करना बहुत गलत है|
अरुण कान्त शुक्ला
25/11/2017

Trip Of A Lifetime NEW DELHI TO LONDON सड़क मार्ग से

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ये सूचनात्मक लेख मैंने दो साल पहले आपने फेसबुक वाल पे लिखा था
लड़कियों के साहस जज्जबे जूनून की कहानी है ये
3 लड़कियों. 1 Car. 21,477 Kms. 17 देश. 97 दिन. और यात्रा नई दिल्ली से लंदन वो भी सड़क मार्ग से
सफर का नाम- Trip Of A Lifetime NEW DELHI TO LONDON

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तो इन तीन लड़कियों के नाम – रश्मि कोप्पर, डॉ सोम्या गोयल , और नीधी तिवारी
और चारपहिया वाहन जैसा की नीचे चित्र में देखें दिल्ली का नम्बर लगा भारतीय कम्पनी का उत्पाद।
लंदन की सड़कों पर।
हालाँकि इतनी लम्बी यात्रा के लिए इनलोगो ने काफी रिसर्च किया फिर अपने एस यु वि कर के Tyre इंजन आदि में भी बदलाव करवाया फिर थोड़े बहुत सामान ले कर निकल पड़े

ये लोग यात्रा आरंभ करती है जून महीने में दिल्ली से NH2 पकड़कर दिल्ली, कानपुर से कोलकता होते हुए बर्मा मयनमार चीन किरघीस्तान उज्बेकिस्तान कझाकिस्तान रूस युक्रेन पोलैंड चेक जर्मनी बेल्जियम फ्रांस फिर लंदन
और जब पहुँचते है तो महीना अक्टूबर का।

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Day 1 to 7: Delhi – Kanpur – Siliguri – Guwahati – Imphal – Moreh/ Tamu border point (Myanmar) – Monywa (Distance: 2,403 km)

Day 8 to 14: Monywa – Mandalay – Lhasa – Muse – Ruili – Dali – Xichang – Chengdu (Distance: 1903 kms)

Day 15 to 21: Chengdu – Ruoergai – Xining – Jiayuguan – Hami – Turpan – Kuerle (Distance: 3,520 km)

Day 22 to 28: Kuerle – Akesu – Kashgar – Sary Tash (Kyrgyzstan) – Osh – Tashkent – Samarkhand – Bukhara (Distance: 1,964 km)

Day 29 to 35: Bukhara – Khiva – Nukus (Khazakistan) – Beyneu – Atyrau – Astrakhan (Russia) – Volvograd (Distance: 2,352 km)

Day 36 to 42: Volvograd – Kamensk – Kharkiv – Kiev (Ukraine) – Lviv – Karkow (Poland) – Prague (Czech Republic) (Distance: 2,589 km)

Day 43 to 54: Prague – Frankfurt (Germany) – Brussels (Belgium) – London (UK) (Distance: 1,269 km)

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यह जानकारी फेसबुक मित्र के वाल से लिया था

सभी मित्रों केलिए मात्र यात्रा की जान कारी के लिए यदि कभी किसी को ऐसी यात्रा का खयाल आये तो रिसर्च में थोड़ी सहूलियत मिल जाएगी
और
उन तीन लड़कियों के जजबे की भी दाद देनी होगी।
और
एक बात अब ये न कहीयेगा
ये अफगानिस्तान पाकिस्तान इराक वाले रास्ते से भी तो जा सकती थी

जाड़ा और सरकारी स्कूल के बच्चे.

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चित्र साभार-दैनिक जागरण,देवरिया.दिनांक-03.01.2018

एक तरफ पारा अपने न्यूनतम स्तर पर पहुँच रहा है तो दूसरी तरफ सुविधाओं का उपभोग कर रहे देवरिया के बीएसए साहब गर्मी से व्याकुल हैं। इसी का नतीजा है भीषण ठंड में प्राइमरी विद्यालय को 3 जनवरी से खोलने का आदेश। जी हाँ जब पूरे प्रदेश में विशेष रूप से गोरखपुर मंडल में ठण्ड के मद्देनज़र विद्यालय बंद रखने का आदेश है,देवरिया के विद्यालय खुल गए हैं। आवश्यक संसाधनों से जूझ रहे सरकारी विद्यालयों को बीएसए साहब निजी विद्यालयों की तरह सुविधा संपन्न समझते हैं और उसमें पढ़ने वाले बच्चों को जाड़े से लड़ने में सक्षम,चाहे मेवा के नाम पर उनकी मूंगफली से भेंट न होती हो और सुबह-सवेरे पेट भरने के लिए घर में बासी रोटी न हो। अच्छा स्वेटर तो छोड़िये तन ढकने के लिए उनके पास ढंग का कपड़ा तक नहीं होता। एक अदद सरकारी ड्रेस उनके तन पर होता है,जिसके काज-बटन के फटे – टूटे होने की गारंटी होती है। पैर में जूता तो छोड़िये,सही से चप्पल भी नहीं होता। सरकार के मुफ़्त स्वेटर का भीषण ठण्ड में दूर-दूर तक पता नहीं है। प्रायः कक्षाओं में बैठने के लिए बेंच तो बड़ी चीज़ है टाट भी पर्याप्त नहीं होता। कमरों में दरवाज़ों और खिड़कियों का भी अभाव बना रहता है। ऐसे में जबकि हाड़ कँपाता जाड़ा पड़ रहा है, विद्यालय आया हुआ बच्चा पड़ेगा या काँपेगा ! इस सब के बाद भी यदि बीएसए साहब ने स्कूल खोलने का आदेश दिया है तो उन्हें आदेश में यह भी जोड़ना चाहिए था की यदि किसी बच्चे को कुछ होगा तो इसका जिम्मेदार कौन होगा?
अंत में एक प्रश्न पाठकों से – सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों की इन सब समस्याओं से अनभिज्ञ बीएसए साहब क्या उनके लिए सही अभिभावक हैं ?

एक किलो चावल के लिए हत्या

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मित्रों, रामचरितमानस में एक प्रसंग है. भक्तराज हनुमान माता सीता की खोज में लंका जाते है. माता सीता से भेंट होने के बाद हनुमान भूख मिटाने के लिए पास के बगीचे से फल तोड़कर खाने लगते हैं. लेकिन उनका ऐसा करना राक्षसों को नागवार गुजरता है. फिर युद्ध होता है और अंततः हनुमान को बंदी बनाकर राक्षसराज रावण के दरबार में पेश किया जाता है. तब हनुमान रावण से पूछते हैं कि उनको किस अपराध में बंदी बनाया गया है. क्योंकि भूख लगने पर भूख मिटाने के लिए की गई चोरी अपराध नहीं होता क्योंकि अपनी जान की रक्षा करना हर प्राणी का कर्त्तव्य होता है.
मित्रों, इसी तरह का एक प्रसंग महाभारत में भी है जब रंतिदेव नामक एक ब्राह्मण का परिवार जो कई दिनों से भूखा होता है एक भिक्षुक की जठराग्नि को बुझाने के लिए अपना भोजन दान कर देता है और खुद दम तोड़ देता है. इसी प्रकार राजा शिवि द्वारा एक कबूतर की प्राणरक्षा के लिए अपना मांस अपने हाथों से काट-काटकर बाज को खिला देने का इसी महाकाव्य का प्रसंग भी हम बचपन से पढ़ते आ रहे हैं.
मित्रों, फिर उसी भारत में अगर किसी भूखे, लाचार गरीब को एक किलो चावल चुराने के चलते बेरहमी से पीट-पीट मनोरंजन के तौर पर मार दिया जाए तो इससे बुरा और क्या होगा. क्या आज के भारत में रामायण काल के राक्षसों का राज है? हाँ, हुज़ूर मैं बात कर रहा हूँ सर्वहारा पार्टी द्वारा शासित केरल में घटी घटना की जहाँ मधु नाम के एक गरीब आदिवासी की हत्या कर उनकी गरीबी और अभाव से भरे जीवन का भी अंत कर दिया गया है. शायद सर्वहारा के पैरोकार दल ने गरीबी मिटाने का यह नया तरीका ढूंढ निकाला है. क्या तरीका है! गजब!! अनोखा!!! जब गरीब ही नहीं रहेंगे तो गरीबी कहाँ से रहेगी, जब भूखे ही नहीं रहेंगे तो भूख कहाँ रहेगी? वैसे आश्चर्य है कि मार्क्स इस तरीके की खोज क्यों और कैसे खोज नहीं पाए?
मित्रों, आश्चर्य तो इस बात को लेकर भी है कि अभी तक किसी भी अतिसंवेदनशील ने अपने पुरस्कार वापस नहीं किए? करेंगे भी कैसे मधु ने कोई गाय की हत्या थोड़े ही की थी? चावल चुरानेवाले तो इन्सान होते ही नहीं हैं इन्सान तो गोहत्या करनेवाले होते हैं, मुम्बई में बम फोड़नेवाले होते हैं. यह बात अलग है कि मुझे आज तक कोई पुरस्कार दिया नहीं गया है वर्ना मैं कब का वापस कर चुका होता शायद तभी जब केरल में पहले आरएसएस प्रचारक की बेवजह नृशंस हत्या हुई थी.
मित्रों, इसी तरह से बंगाल में हिन्दू विद्यालयों पर रोक लगा दी गई है लेकिन फिर भी कोई असहिष्णुता नहीं फैली क्योंकि हिन्दू तो आदमी होते ही नहीं. हद तो यह है कि केंद्र की मोदी सरकार चुपचाप इस तरह की घटनाओं को मूकदर्शक बनी आँखें फाडे देखे जा रही है. क्या यही है उसका रामराज्य? उनके आदर्श राम ने तो सत्ता सँभालते ही घोषणा की थी कि निशिचरहीन करौं महि हथ उठाए पण कीन्ह. राम ने तो हर अन्याय का प्रतिकार किया. जब सत्ता में नहीं थे तब भी रावण जैसे सर्वशक्तिशाली से युद्ध किया. तो क्या आज की भाजपा के लिए राम भी सिर्फ एक वोटबैंक हैं? उनके आदर्शों का उसके लिए कोई महत्त्व नहीं है? तो क्या इसी तरह मधु रोटी के लिए मारे जाते रहेंगे? अगर यही सब होना था तो क्या लाभ है भाजपा के केंद्र और १८ राज्यों में सत्ता में होने से? क्या लाभ है???


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